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{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=
}}

<Poem>

बहुत ही नन्हें-नरम दो हाथ
छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है!
:::दिन निकलता है!

खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी
रैक-टेबिल खाट पर बिखरी
सीढ़ियों-सड़कों-दुराहों पर
जिसे ओढ़े बिलबिलाता नगर चलता है!

आख़िरी क़तरा लहू का : शाम!
एक बदसूरत अंधेरा : व्यस्तता का
व्यवस्थित परिणाम ।
टूटने को नसें खिंचती हैं
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है!
:::दिन निकलता है!

</poem>