<poem>
:::1
मौन आहों में बुझी तलवार
तैरती है बादलों के पार।
चूमकर ऊषाभ आशा अधर
गले लगते हैं किसी के प्राण।
:::– गह न पाएगा तुम्हें मध्याह्न ::::छोड़ दो न ज्योति का परिधान!
:::2
यह कसकता, यह उभरता द्वंद्व
तुम्हें पाने मधुरतम उर में,
तोड़ देने धैर्य-वलयित हृदय
:::उठा।
परम अंतर्मिलन के उपरांत