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{{KKRachna
|रचनाकार=नीरज दइया
|संग्रह=
}}
<Poem>
निरन्तर
बीमारी में अधरझूल
झूल रही है दादी ।
यह झूलना
लगभग ख़त्म ही समझो अब
लेकिन
मन नहीं भरता, दादी का ।

दादी !
क्यों है तुम्हारा
जीये जाने से इतना मोह
अब क्या रह गया है शेष
जबकि तुम्हारे बच्चे तक
नाक-नाक आ गए हैं
अपनी नाक रखते
गली मुहल्ले के भय से

मित्रों !
दादी की तरह
दुनिया भी झूल रही है
अधरझूल !


'''अनुवाद : मोहन आलोक
</poem>