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सब्र करो / रवीन्द्र दास
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13:44, 12 मई 2009
मेरे दिमाग में भरा हुआ है बहुत सारा गुस्सा
रिसता रहता है जो अन्दर ही अन्दर
असहाय और
एकांत|
एकांत।
लेकिन नहीं जाने दूंगा बेकार
अपने गुस्से को,
मत छलकने दो -
गुस्सा।
आवाज़ में बदलने तक सब्र
करो|
करो।
</Poem>
अनिल जनविजय
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