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सब्र करो / रवीन्द्र दास
Kavita Kosh से
मेरे दिमाग में भरा हुआ है बहुत सारा गुस्सा
रिसता रहता है जो अन्दर ही अन्दर
असहाय और एकांत।
लेकिन नहीं जाने दूंगा बेकार
अपने गुस्से को,
बदल दूंगा इसे शब्दों में -
मैं तुम्हें शब्द दूंगा
और दूंगा आवाज़, ताकि जलन कम हो
तुम्हारी आँखों की
अपने ही कंठ से बोलो तुम
अपनी बात, चाहो तो मेरे साथ-साथ
लगाओ आवाज़ -
मान लो कि सीखना है अभी बाकी
इसके साथ, मान लो यह भी,
कि होना है बाकी अभी सब कुछ
वह जो दीख पड़ता है -
हुआ हुआ सा,
वह है किसी और के हिस्से का
धीरे धीरे खोलो -
अपनी आँखें,
अपना मन, अपनी इच्छा, अपना...
मत छलकने दो -
गुस्सा।
आवाज़ में बदलने तक सब्र करो।