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17:52, 30 जुलाई 2009 <poem>
वे सब के सब अन्तर्यामी
हम ठहरे मूरख खल कामी
आँच न आए गुरूजनों पर
चेलों की तो क्या बदनामी
कितना फिर से बन कर साधू
मन भीतर से चोर हरामी
धरती पर चलने वालों की
कहाँ सुनेंगे ये नभगामी
समय पड़े तो घर-घर बहनें
भौजी,मौसी,चाची मामी
ऐश करा देगा सबकी है
मुजरिम हवालत में नामी
सब्र सादगी काम न आएं
मिले प्रेम से जब नाकामी
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