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18:50, 30 जुलाई 2009 <poem>
दाई से जो पेट छुपाए
बाद में उतना ही पछताए
पंछी मिलकर ज़ोर लगाएं
जाल भी उड़कर साथ उड़ाए
परछाईं पर भौंके कुत्ते
अपने मुँह का ग्रास गंवाए
अपने घर की कीमत पर क्यों
बंदर को चिड़्या समझाएं
आपस में जब ठीक न बोलें
पंचायत में मुँह लटकाए
पेट भरे हैं आँखे भूख़ी
सोच समझकर उन्हें बुलाएं
खास ठिकाना पाकर पलता
राह गली क्यों प्रेम कमाए
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