भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दई से जो पेट छिपाएँ / प्रेम भारद्वाज
Kavita Kosh से
दाई से जो पेट छुपाए
बाद में उतना ही पछताए
पंछी मिलकर ज़ोर लगाएं
जाल भी उड़कर साथ उड़ाए
परछाईं पर भौंके कुत्ते
अपने मुँह का ग्रास गंवाए
अपने घर की कीमत पर क्यों
बंदर को चिड़्या समझाएं
आपस में जब ठीक न बोलें
पंचायत में मुँह लटकाए
पेट भरे हैं आँखे भूख़ी
सोच समझकर उन्हें बुलाएं
खास ठिकाना पाकर पलता
राह गली क्यों प्रेम कमाए