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कितना मुश्किल है / अवतार एनगिल

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|रचनाकार=अवतार एनगिल
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}}
<poem>सभी जानते हैं
कि शहर अब जंगल है
जिसमें भटकते हैं
आदमीनुमा भूत
या भूतनुमा आदमी

हर भूत के सर पर
एक-एक शिला है
हर मुर्दे को
वक़्त से गिला है

जलते अंधेरे की लौ में
भुतहा परछाईयों ने
बुना है
असंख्य धागों का जाल
जिसमें फंसे छटपटाते हैं
एक अदद औरत
एक अदद आदमी

एक जाल के चारों तरफ
घूमते-नाचते हैं
दुकानदारों के बिल
बैंकों के कर्ज़े
'पॉऊंड ऑफ फ्लैश' मांगते शाईलार्क
मशालधारी मसीहे,
मार्ग,
वायदे
और आर्ट-पेपर पर छपे सपने

ऐसे में
कितना मुश्किल है
इस व्यूह में घिरे बौखलाए आदमी से
या रसोईघर में हलकान होती औरत से
संवाद स्थापित करना।
</poem>
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