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07:55, 13 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं
अहले-नज़र ये चोट भी खाये हुए-से हैं
वो तूर हो कि हश्रे-दिल अफ़्सुर्दगाने-इश्क<sup>1</sup>
हर अंजुमन में आग
लगाये-हुए-से हैं
सुब्हे-अज़ल को यूँ ही ज़रा मिल गयी थी आंख
वो आज तक निगाह
चुराये-हुए-से हैं
हम बदगु़माने-इश्क तेरी बज़्मे - नाज से
जाकर भी तेरे सामने
आये-हुए-से हैं
ये क़ुर्बो-बोद<sup>2</sup> भी हैं सरासर फ़रेबे-हुस्ने
वो आके भी '''फ़िराक़''' न आए-हुए-से हैं
1- प्रेम में दुखी लोग, 2- सामीप्य एवं दूरी
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