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07:41, 17 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़<sup>1</sup> के भी कितनी चढ़ गई है
हम तो ये कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गई है
हर शय ब-नसीमे-लम्से-नाज़ुक<sup>2</sup>
बर्गे-गुले-तर से बढ़ गयी है
जब-जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इल्ज़ाम मढ़ गयी है
तुझ पर जो पड़ी है इत्तफ़ाक़न
हर आँख दुरूद<sup>3</sup> पढ़ गयी है
सुनते हैं कि पेंचो-ख़म<sup>4</sup> निकल कर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है
जब-जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी-सी चढ़ गयी है
अब मुफ़्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की क़द्र बढ़ गयी है
जब मुझसे मिली '''फ़िराक''' वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है
1- उपदेशक, 2- कोमल हवा के स्पर्श से, 3- दुआ का मन्त्र, 4- टेढ़ापन
</poem>