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{{KKRachna
|रचनाकार=जाँ निसार अख़्तर
|संग्रह=घर-आँगन (रुबाइयाँ) / जाँ निसार अख़्तर
}}
[[Category:रुबाई]]{{KKCatRubaayi}}
<poem>
इक बार गले से उनके लगकर रो ले
जाने को खड़े हैं उनसे क्या बोले
जज़बात जज़्बात से घुट के रह गई है आवाज़
किस तरह से आँसुओं के फंदे खोले
</poem>
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