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आस्था / धर्मवीर भारती

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{{KKRachna
|रचनाकार=धर्मवीर भारती
}} <poem>रात:
पर मैं जी रहा हूँ निड़र
जैसे कमल
जैसे पंथ
जैसे सूर्य

क्योंकि
कल भी हम खिलेंगे
हम चलेंगे
हम उगेंगे

और वे सब साथ होंगे
आज जिनको रात नें भटका दिया है!</poem>
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