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मम्दूह / फ़राज़

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|रचनाकार=अहमद फ़राज़
|संग्रह=दर्द आशोब / अहमद फ़राज़
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चन्द लम्हों मम्दूह<ref>क्षणोंप्रशंसित</ref>के लिए तूने मसीहाई<ref>इलाज</ref>कीफिर वही मैं हूँ वही उम्र है तन्हाई <ref>अकेलापन</ref>की किस पे गु़ज़री न शबे-हिज्र<ref>विरह की रात</ref>क़यामात<ref>प्रलय</ref>की तरहफ़र्क़ इतना है कि हमने सुख़न-आराई<ref>काव्य-रचना</ref>की
अपनी बाहों में सिमट आई मैंने कब की है वो क़ौसेतिरे काकुलो-क़ुज़:लब<ref>इंद्र-धनुषबालों व होंठों </ref>की तारीफ़<ref>प्रशंसा</ref> लोग तस्वीर ही खींचा किए अँगड़ाई मैंने कब लिक्खे क़सीदे<ref>प्रशंसा</ref> तिरे रुख़सारों<ref>गालों की</ref> केमैंने कब तेरे सरापा<ref>सिर से पाँव तक</ref>की हिक़ायात<ref>कथाएँ</ref> कहींमैं ने कब शेर<ref>ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ</ref> कहे झूमते गुलज़ारों <ref>उद्यानों</ref> केजाने दो दिन की महब्बत में में ये बहके हुए लोगकैसे अफ़साने बना लेते है दाराओं<ref>वीरों</ref> के
ग़ैरते-इश्क़मैं कि शायर था मेरे फ़न <ref>प्रेम का स्वाभिमानकला</ref>बजा तान-ए-याराँ की रवायत<ref>मित्रों के कटाक्षपरंपरा</ref>तस्लीमथी यहीमुझको इक फूल नज़र आए तो तो गुलज़ार कहूँमुस्कुराती हुई हर आँख को क़ातिल<ref>स्वीकार्यवध करने वाला</ref> जानूँहर निगाहे-ग़लतअन्दाज़ <ref>भ्रम में डालने वाली दृष्टि</ref> को तलवार कहूँमेरी फ़ितरत<ref>स्वभाव</ref>थी कि मैं हुस्ने-बयाँ<ref>बात करते हैं मगर सब उसी हरजाई कहने का ढंग का सौंदर्य</ref> कीख़ातिरहर हसीं लफ़्ज़ <ref>सुन्दर शब्द को</ref> को दर-मदहे-रुख़े-यार <ref>प्रेयसी के चेहरे की प्रशंसा</ref> कहूँ
उनको भूले मेरे दिल में भी खिले हैं तेरी चाहत के कँवलऐसी चाहत कि जो वहशी<ref>पागल</ref> हो तो क्या-क्या न करेमुझे गर हो भी तो कुछ और परेशाँक्या ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला<ref>दु:खीअंगारों की परिक्रमा का गर्व</ref>हैं ‘फ़राज़’ अपनी दानिस्ततू है वो शम्अ कि पत्थर की भी परवा<ref>जानकारीचिन्ता</ref>में दिल ने बड़ी दानाई न करेमैं नहीं कहता कि तुझ-सा है न मुझ-सा कोईवरना शोरीदगी-ए-शौक़<ref>समझदारीशौक़ का पागलपन</ref>कीतू दीवाना करे
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