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शायद खिज़ाँ से शकल शक्ल अयाँ हो बहार की <br>
कुछ मस्लहत इसी में हो परवरदिगार की <br><br>
ये जाल, ये फ़रेब, ये साज़िश, ये शोर-ओ-शर <br>
हो न होना जो है, सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर <br>
असबाब-ए-ज़ाहिरी हैं, न इन पर करो नज़र <br>
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जलवागर <br><br>
राहत हो या के रंज, खुशी हो के इन्तेशार <br>
वाजिब हर एक रंग में है शुर्कशुक्र-ए-किर्दगार <br>
तुम ही नहीं हो कुश्त-ए-नीरंग-ए-रोज़गार <br>
मतममातम-कदाँ कदह में दहर के लाखों हैं सोगवार<br><br>
सख्ती सही नहीं, के उठाई कडी़ कड़ी नहीं <br>दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पडी़ पड़ी नहीं<br><br>
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंकलाब <br>
पीरी मिटी किसी की, किसी का मिटा शबाब <br><br>
कुछ बन नहीं पडा़पड़ा, जो नसीबे बिगड़ गये <br>
वो बिजलियाँ गिरीं, के भरे घर उजड़ गये <br><br>
माँ बाप मुँह ही देखते थे जी जिन का हर घडी़घड़ी<br> क़ायम थीं जिन के दम से उमीदें बडी़ बडी़ बड़ी बड़ी<br>दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पडी़ पड़ी <br>मारी न जिन को ख्वाब में भी फूल की छडी़ छड़ी <br><br>
महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से <br>
इन बेकसों की जान का बचना है अब मुहाल <br>
है किबरियाँ की शान, गुज़रते ही माह-ओ-साल <br>
खु़द खुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया खयाल <br><br>
हाँ कुछ दिनों तो नौहा-व-मातम हुआ किया <br>
ये जानते नहीं, वो है दाना-ए-रोज़गार <br><br>
इन्सान उस की राह में साबित-ए-क़दम रहे <br>
गर दिन वही है, अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे <br><br>
और आप को तो कुछ भी नही रंज का मुक़ाम <br>
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आयेंगे शाद काम शादकाम <br>
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम <br>
क़ायम उमीद ही से है, दुनिया है जिस का नाम<br><br>
और युँ यूं कहीं भी रंज-ओ-बल से मफ़र नहीं <br>क्या होगा दो घडी़ घड़ी में किसी को खबर नहीं <br><br>
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ<br>
है दिन की धूप, रात की शबनम उन्हें गिराँ<br>
लेकिन जो रंग बाग़ बदल्त बदलते है ना गुहाँ नागहाँ <br>
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं रायगाँ <br><br>
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हे उन्हें अपनी जाँ की तरह <br>
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़ज़ाँ की तरह <br><br>