रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग २
शायद खिज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की 
कुछ मस्लहत इसी में हो परवरदिगार की 
ये जाल, ये फ़रेब, ये साज़िश, ये शोर-ओ-शर 
होना जो है, सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर 
असबाब-ए-ज़ाहिरी हैं, न इन पर करो नज़र 
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जलवागर 
खास उस की मस्लहत कोई पहचानता नहीं 
मन्ज़ूर क्या उसे है? कोई जानता नहीं
राहत हो या के रंज, खुशी हो के इन्तेशार 
वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार 
तुम ही नहीं हो कुश्त-ए-नीरंग-ए-रोज़गार 
मातम-कदह में दहर के लाखों हैं सोगवार
सख्ती सही नहीं, के उठाई कड़ी नहीं 
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंकलाब 
जिन से के बेगुनाहों की उम्रें हुई खराब 
सोज़े-दरूँ से क़ल्ब-ओ-जिगर हो गये कबाब 
पीरी मिटी किसी की, किसी का मिटा शबाब 
कुछ बन नहीं पड़ा, जो नसीबे बिगड़ गये 
वो बिजलियाँ गिरीं, के भरे घर उजड़ गये 
माँ बाप मुँह ही देखते थे जिन का हर घड़ी
 
क़ायम थीं जिन के दम से उमीदें बड़ी बड़ी
दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी 
मारी न जिन को ख्वाब में भी फूल की छड़ी 
महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से 
उन को जला के खाक़ किया अपने हाथ से 
कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल 
इन बेकसों की जान का बचना है अब मुहाल 
है किबरियाँ की शान, गुज़रते ही माह-ओ-साल 
खुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया खयाल 
हाँ कुछ दिनों तो नौहा-व-मातम हुआ किया 
आखिर को रो के बैठ रहे, और क्या किया? 
पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-महन का बार 
करता है उस को सबर अता आप किरदार 
मायूस हो के होते हैं इन्सान गुनाहगार 
ये  जानते नहीं, वो है दाना-ए-रोज़गार 
इन्सान उस की राह में साबित क़दम रहे 
गर दिन वही है, अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे 
और आप को तो कुछ भी नही रंज का मुक़ाम 
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आयेंगे शादकाम 
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम 
क़ायम उमीद ही से है, दुनिया है जिस का नाम
 
और यूं कहीं भी रंज-ओ-बल से मफ़र नहीं 
क्या होगा दो घड़ी में किसी को खबर नहीं 
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ
है दिन की धूप, रात की शबनम उन्हें गिराँ
 
लेकिन जो रंग बाग़ बदलते है नागहाँ 
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं रायगाँ 
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जाँ की तरह 
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़ज़ाँ की तरह 
लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बेशुमार 
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार 
देखो ये चमन आराये रोज़गार 
वो अब्र-ओ-बाद-ओ-बरफ़ में रहते हैं बरकरार 
होता है उन पे फ़स्ल जो रब्बे-करीम का 
मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का 
अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर 
सहरा चमन बनेगा, वो है मेहरबाँ अगर 
जंगल हो या पहाड़, सग्फ़र हो के हो हज़र 
रहता नहीं वो हाल से बन्दे के बेख़बर 
उस का करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं 
दामन-ए-दश्त, दामन-ए-मादर से कम नहीं
 
	
	

