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<span class="upnishad_mantra">
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥१३- १८॥
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इति क्षेत्रम, ज्ञानम् ज्ञेयम कौ,
मैं सार संक्षेप कह्यो तोसों.
जेहि तथ्य सों जानि के भक्त मेरौ ,
अथ निश्चय ही मिलिहै मोसों
<span class="upnishad_mantra">प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥१३- १९॥</span>
हे अर्जुन! प्रकृति और पुरुष ,
दोउन कौ जानि अनादि इन्हें.
सब राग द्वेष त्रिगुणी माया ,
भी जानि प्रकृति सों आदि इन्हें
<span class="upnishad_mantra">कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥१३- २०॥</span>
करमन कारज के मूल माहीं,
कारण प्रकृति ही जात कही.
सुख-दुःख , कलेशन भोगन में,
कारण जीवात्मा होत यही
<span class="upnishad_mantra">पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥१३- २१॥</span>
प्रकृतिस्थ जना, तो प्रकृति जन्य.
प्रकृति माहीं ही रहत सदा.
त्रिगुनी द्रव्यन के भोग योग,
शुभ-अशुभ जनम मय भोग मदा
<span class="upnishad_mantra">उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥१३- २२॥</span>
रहे देह माहीं अपि ,ज्ञानी तौ,,
बस देखत माया , होत परे.
अनुमन्ता, भरता होय के भी ,
निज मूल ब्रह्म मय, होत नरे
<span class="upnishad_mantra">य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥१३- २३॥</span>
अथ देह धरे, पर देह परे,
जेहि जना तत्त्व सों जानत हैं.
व्यवहार तथापि करैं, जग कौ,
पुनि जन्म कदापि न पावत हैं
<span class="upnishad_mantra">ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥१३- २४॥</span>
कितनेहूँ जनान , हिया माहीं,
लखैं ब्रह्म कौ ध्यान के योगन सों.
निष्काम करम के योगन सों,
कछु, योग के योग सों, योगन सों
<span class="upnishad_mantra">अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥१३- २५॥</span>
कछु अन्य कई अज्ञानी जना,
पथ ज्ञानिन कौ अपनावत हैं,
जस सुनयो, करयो तस विधि जनान,
भाव सिन्धु मरन तरि जावत हैं
<span class="upnishad_mantra">यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥१३- २६॥</span>
स्थावर जंगम वस्तु सबहिं,
हे अर्जुन! जो कछु उपजत है.
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के योगन सों
सगरे जग माहीं जनमत हैं
<span class="upnishad_mantra">समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥१३- २७॥</span>
संसार विनासन हारो है,
तस माहीं प्रभू परमेश्वर कौ,
सम भाव कौ भाव , हिया धारे.
तेहि , देखि सकें अखिलेश्वर कौ
<span class="upnishad_mantra">समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥१३- २८॥</span>
सम भाव सों देखत ऐसो जना,
सब प्राणिन माहीं महीश्वर कौ.
तन मरत, आत्मा अविनासी ,
यहि मरम जानि मिलें ,ईश्वर कौ
<span class="upnishad_mantra">प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥१३- २९॥</span>
जेहि मानुष , ऐसो देखति कि,
प्रकृति ही करम करै सगरौ,
तेहि जानि अकर्ता , आतमा कौ,
यहि मरम जानि जीवन संवरौ
<span class="upnishad_mantra">यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥१३- ३०॥</span>
सगरे संसारन प्रानिन कौ,
विस्तार आधार है एक विभो,
जेहि कालहिं ऐसो समुझत है,
तेहि कालहिं , मुक्त हो , पावें प्रभो
<span class="upnishad_mantra">अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥१३- ३१॥</span>
सुन अर्जुन! निर्गुण ब्रह्म अनादि ,
अकर्ता और निर्लिप्त महे,
तन माहीं बसै, तबहूँ नाहीं ,
करमन सों लिप्त हो लेश अहे
<span class="upnishad_mantra">यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥१३- ३२॥</span>
जस व्यापक है आकाश सबहिं,
पर सूक्षम अति निर्लिप्त रहै,
तस देह में बास, तथापि न देह,
सों, नैकहूँ आतमा लिप्त रहै
<span class="upnishad_mantra">यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥१३- ३३॥</span>
जस अर्जुन! एकहिं सूरज सों,
ज्योतित सगरौ ब्रह्माण्ड भयौ.
तस एकहिं आतमा देह सकल ,
ज्योतित करि देत है , तथ्य कह्यौ
<span class="upnishad_mantra">क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥१३- ३४॥</span>
क्षेत्र -क्षेत्रज्ञन , भेद विकारन ,
ज्ञान नयन सों जाने जना जो.