अध्याय १३ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥१३- १८॥
इति क्षेत्रम, ज्ञानम् ज्ञेयम कौ,
मैं सार संक्षेप कह्यो तोसों.
जेहि तथ्य सों जानि के भक्त मेरौ ,
अथ निश्चय ही मिलिहै मोसों
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥१३- १९॥
हे अर्जुन! प्रकृति और पुरुष ,
दोउन कौ जानि अनादि इन्हें.
सब राग द्वेष त्रिगुणी माया ,
भी जानि प्रकृति सों आदि इन्हें
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥१३- २०॥
करमन कारज के मूल माहीं,
कारण प्रकृति ही जात कही.
सुख-दुःख , कलेशन भोगन में,
कारण जीवात्मा होत यही
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥१३- २१॥
प्रकृतिस्थ जना, तो प्रकृति जन्य.
प्रकृति माहीं ही रहत सदा.
त्रिगुनी द्रव्यन के भोग योग,
शुभ-अशुभ जनम मय भोग मदा
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥१३- २२॥
रहे देह माहीं अपि ,ज्ञानी तौ,,
बस देखत माया , होत परे.
अनुमन्ता, भरता होय के भी ,
निज मूल ब्रह्म मय, होत नरे
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥१३- २३॥
अथ देह धरे, पर देह परे,
जेहि जना तत्त्व सों जानत हैं.
व्यवहार तथापि करैं, जग कौ,
पुनि जन्म कदापि न पावत हैं
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥१३- २४॥
कितनेहूँ जनान , हिया माहीं,
लखैं ब्रह्म कौ ध्यान के योगन सों.
निष्काम करम के योगन सों,
कछु, योग के योग सों, योगन सों
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥१३- २५॥
कछु अन्य कई अज्ञानी जना,
पथ ज्ञानिन कौ अपनावत हैं,
जस सुनयो, करयो तस विधि जनान,
भाव सिन्धु मरन तरि जावत हैं
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥१३- २६॥
स्थावर जंगम वस्तु सबहिं,
हे अर्जुन! जो कछु उपजत है.
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के योगन सों
सगरे जग माहीं जनमत हैं
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥१३- २७॥
संसार विनासन हारो है,
तस माहीं प्रभू परमेश्वर कौ,
सम भाव कौ भाव , हिया धारे.
तेहि , देखि सकें अखिलेश्वर कौ
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥१३- २८॥
सम भाव सों देखत ऐसो जना,
सब प्राणिन माहीं महीश्वर कौ.
तन मरत, आत्मा अविनासी ,
यहि मरम जानि मिलें ,ईश्वर कौ
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥१३- २९॥
जेहि मानुष , ऐसो देखति कि,
प्रकृति ही करम करै सगरौ,
तेहि जानि अकर्ता , आतमा कौ,
यहि मरम जानि जीवन संवरौ
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥१३- ३०॥
सगरे संसारन प्रानिन कौ,
विस्तार आधार है एक विभो,
जेहि कालहिं ऐसो समुझत है,
तेहि कालहिं , मुक्त हो , पावें प्रभो
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥१३- ३१॥
सुन अर्जुन! निर्गुण ब्रह्म अनादि ,
अकर्ता और निर्लिप्त महे,
तन माहीं बसै, तबहूँ नाहीं ,
करमन सों लिप्त हो लेश अहे
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥१३- ३२॥
जस व्यापक है आकाश सबहिं,
पर सूक्षम अति निर्लिप्त रहै,
तस देह में बास, तथापि न देह,
सों, नैकहूँ आतमा लिप्त रहै
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥१३- ३३॥
जस अर्जुन! एकहिं सूरज सों,
ज्योतित सगरौ ब्रह्माण्ड भयौ.
तस एकहिं आतमा देह सकल ,
ज्योतित करि देत है , तथ्य कह्यौ
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥१३- ३४॥
क्षेत्र -क्षेत्रज्ञन , भेद विकारन ,
ज्ञान नयन सों जाने जना जो.
मोक्ष विधि, तिन जानि के तत्त्वन,
ब्रह्महिं पावें, ज्ञानी मना जो