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17:35, 1 अप्रैल 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= जावेद अख़्तर
|संग्रह= तरकश / जावेद अख़्तर
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<poem>
गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदरा हुआ
जाती रही वो लम्स<ref>स्पर्श</ref> की नर्मी, बुरा हुआ
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ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
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कौन-सा शे'र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ
नया मुब्हम<ref>उलझा हुआ</ref> है बहुत और पुराना मुश्किल
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ख़ुशशकल<ref>अच्छी सूरतवाला</ref> भी है वो, ये अलग बात है, मगर
हमको ज़हीन<ref>समझदार</ref> लोग हमेशा अज़ीज़<ref>प्यारे</ref> थे
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हमको उठना तो मुँह अँधेरे था
लेकिन इक ख़्वाब हमको घेरे था
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सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है
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अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है
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इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं
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गली में शोर था मातम था और होता क्या
मैं घर में था मगर इस गुल<ref>शोर</ref> में कोई सोता क्या
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आज की दुनिया में जीने का क़रीना<ref>तरीका</ref> समझो
जो मिलें प्यार से उन लोगों को ज़ीना<ref>सीढ़ी</ref> समझो
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कम से कम उसको देख लेते थे
अब के सैलाब में वो पुल भी गया
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ऐ सफ़र इतना रायगाँ<ref>बेकार</ref> तो न जा
न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे
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लो देख लो यह इश्क़ है ये वस्ल<ref>मिलन</ref> है ये हिज़्र<ref>जुदाई</ref>
अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा है
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वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गयी जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
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