वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गयी जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
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वो नहर एक क़िस्सा है दुनिया के वास्ते
फ़रहाद ने तराशा था ख़ुद को चटान पर
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मिरे वुजूद से यूँ बेख़बर है वो जैसे
वो एक धूपघड़ी है मैं रात का पल हूँ
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उन चराग़ों में तेल ही कम था
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे
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मेरी बुनियादों में कोई टेढ़ थी
अपनी दीवारों को क्या इल्ज़ाम दूँ
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तुम्हें भी याद नहीं और मैं भी भूल गया
वो लम्हा कितना हसीं था मगर फ़ुज़ूल गया
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आगही<ref>जानकारी</ref> से मिली है तनहाई
आ मिरी जान मुझको धोखा दे
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रात सर पर है और सफ़र बाकी
हमको चलना ज़रा सवेरे था
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सब हवाएँ ले गया मेरे समंदर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी<ref>पालवाली नाव</ref> दे गया
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पहले भी कुछ लोगों ने जौ बो कर गेहूँ चाहा था
हम भी इस उम्मीद में हैं लेकिन कब ऐसा होता है
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मेरे कुछ पल मुझको दे दो बाकी सारे दिन लोगो
तुम जैसा जैसा कहते हो सब वैसा वैसा होगा
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</poem>
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