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05:56, 31 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
उसने अपना सिद्धान्त न बदला मात्र लेश,
पलटा शासन, कट गई क़ौम, बँट गया देश,
:::वह एक शिला थी निष्ठा की ऐसी अविकल,
:::::सातों सागर
::::::का बल जिसको
:::::::दहला न सका।
छा गया क्षितिज तक अंधक-अंधर-अंधकार,
नक्षत्र, चाँद, सूरज ने भी ली मान हार,
:::वह दीपशिखा थी एक ऊर्ध्व ऐसी अविचल,
:::::उंचास पवन
का वेग जिसे
:::::::बिठला न सका।
पापों की ऐसी चली धार दुर्दम, दुर्धर,
हो गए मलिन निर्मल से निर्मल नद-निर्झर,
:::वह शुद्ध छीर का ऐसा था सुस्थिर सीकर,
:::::जिसको काँजी
::::::का सिंधु कभी
:::::::बिलगा न सका।