भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसके अपना सिद्धान्‍त न बदला मात्र लेश / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उसने अपना सिद्धान्‍त न बदला मात्र लेश,

पलटा शासन, कट गई क़ौम, बँट गया देश,

वह एक शिला थी निष्‍ठा की ऐसी अविकल,
सातों सागर
का बल जिसको
दहला न सका।


छा गया क्षितिज तक अंधक-अंधर-अंधकार,

नक्षत्र, चाँद, सूरज ने भी ली मान हार,

वह दीपशिखा थी एक ऊर्ध्‍व ऐसी अविचल,
उंचास पवन
का वेग जिसे
बिठला न सका।


पापों की ऐसी चली धार दुर्दम, दुर्धर,

हो गए मलिन निर्मल से निर्मल नद-निर्झर,

वह शुद्ध छीर का ऐसा था सुस्थिर सीकर,
जिसको काँजी
का सिंधु कभी
बिलगा न सका।