{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अहमद फ़राज़
|संग्रह=खानाबदोश / फ़राज़
}}
{{KKVID|v=hLctxvjyEEc}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मत-ए-शब् से कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते
कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
जश्न-ए-मकतल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते गाते-जाते
उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते
</poem>