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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
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<poem>
जम्हूरियत का यारों ये खुल्ला खाता है
ये हांक लगाता है वो बांग लगाता है

दो पक्ष पेशेवर हैं इस गोल इमारत में
पढता है ये उत्तर तो वो प्रश्न उगाता है

ये अपनी फितरतों की खर्चीली नुमाईश है
ये शोर मचाता है वो हाँथ उठाता है

हम लोग बदलने को चहरे ही बदलते हैं
जो मुल्क का मालिक है वो गाल बजाता है

भत्ते पे पेंशनों पे तो आम सहमति है
तक़रीर ये करता है वो ताली बजाता है

रोटी मकाँ कपड़ा रामो रहीम इज्ज़त
क्या वाडे वो करता है क्या ख़्वाब दिखाता है
</poem>