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खुल्ला खाता है / विजय वाते
Kavita Kosh से
जम्हूरियत का यारों ये खुल्ला खाता है
ये हांक लगाता है वो बांग लगाता है
दो पक्ष पेशेवर हैं इस गोल इमारत में
पढता है ये उत्तर तो वो प्रश्न उगाता है
ये अपनी फितरतों की खर्चीली नुमाईश है
ये शोर मचाता है वो हाँथ उठाता है
हम लोग बदलने को चहरे ही बदलते हैं
जो मुल्क का मालिक है वो गाल बजाता है
भत्ते पे पेंशनों पे तो आम सहमति है
तक़रीर ये करता है वो ताली बजाता है
रोटी मकाँ कपड़ा रामो रहीम इज्ज़त
क्या वाडे वो करता है क्या ख़्वाब दिखाता है