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रचता हुआ मिटता / सांवर दइया

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<poem>जितना रचना है
उतना मिटना भी है शायद

यह अलग बात है
रचता हुआ मिटता
है नहीं जो दिखता

दिखता जैसे अंखुआ
बनता लकदक पेड
लेकिन बीज फिर नहीं रह जाता

कुछ मिटाना ही
कुछ रचना है !
</poem>
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