भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रचता हुआ मिटता / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितना रचना है
उतना मिटना भी है शायद

यह अलग बात है
रचता हुआ मिटता
है नहीं जो दिखता
 
दिखता जैसे अंखुआ
बनता लकदक पेड
लेकिन बीज फिर नहीं रह जाता

कुछ मिटाना ही
कुछ रचना है !