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रिश्ता / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

भूख के शीशे भी
धुँधले पड़ चुके हैं अब
शीशा तो जरिया था
उठे हुए हाथों और सोये हुए बदरंग धब्बों के बीच
आर-पार देखने का
बँधी हुई मुट्ठी और फैले हुए हाथों के बीच
चुप और चिल्लाते हुए
हाथों के बीच
रोटी; एक रिश्ता थी
और यह रिश्ता भी भूख के शीशों की तरह
धुँधला होता जा रहा है
तो क्या भूख का शीशा
रोटी का रिश्ता
अँधेरे में खुलते वे द्वार हैं
जहाँ हम एक दूसरे को नहीं पहचानते!




<poem>
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