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दुख मेरे आँगन की बेरी / वर्षा सिंह
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20:29, 22 सितम्बर 2010
<Poem>
दुख
:
मेरे आँगन की बेरी ।
हँसी गुमी
पात हिले
यहाँ वहाँ
:
:आँचल में बंद गई छँहेरी ।
विरह गंध
आँसू-सी
ख़ूब झरी
:
:मैं भी तो प्रियतम की चेरी ।
साँसों के
काँटों के
आर-पार
:
:रामा! अब काहे की देरी ।
</poem>
अनिल जनविजय
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