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दुख मेरे आँगन की बेरी / वर्षा सिंह

दुख
मेरे आँगन की बेरी ।

हँसी गुमी
धूप कहाँ
पात हिले
यहाँ वहाँ
आँचल में बंद गई छँहेरी ।

विरह गंध
फूल बसी
आँसू-सी
ख़ूब झरी
मैं भी तो प्रियतम की चेरी ।

साँसों के
दिवस चार
काँटों के
आर-पार
रामा! अब काहे की देरी ।