पलायन / पंछी जालौनवी

कोई कहाँ अब
मुझमें रहना चाहता है
सबकी गठरी बंधी हुई है
सबके काँधे पर है
अपने अपने सफ़र का बोझ
मेरी जान पहचान के सारे
मेरे अंदर के सब नज़ारे
अब पलायन कर रहे हैं
भूख पेट से
पलायन कर चुकी है
और गले से प्यास
ख्वाब आँखों से
नींद बिस्तर से
और ज़हन से आस
बस अब रूह
जिस्म से जाते-जाते
मुड़ मुड़ के देख रही है
पलायन का इरादा
कर चुकी है फिर भी
जाने क्या सोच रही है॥

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.