भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पलायन / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
कोई कहाँ अब
मुझमें रहना चाहता है
सबकी गठरी बंधी हुई है
सबके काँधे पर है
अपने अपने सफ़र का बोझ
मेरी जान पहचान के सारे
मेरे अंदर के सब नज़ारे
अब पलायन कर रहे हैं
भूख पेट से
पलायन कर चुकी है
और गले से प्यास
ख्वाब आँखों से
नींद बिस्तर से
और ज़हन से आस
बस अब रूह
जिस्म से जाते-जाते
मुड़ मुड़ के देख रही है
पलायन का इरादा
कर चुकी है फिर भी
जाने क्या सोच रही है॥