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सखि नीके कै निरखि/ तुलसीदास

(19)
रागकेदारा

सखि! नीके कै निरखि, कोऊ सुठि सुन्दर बटोही |

मधुर मूरति मदनमोहन जोहन-जोग,
बदन सोभासदन देखि हौं मोही ||

साँवरे-गोरे किसोर, सुर-मुनि-चित-चोर,
उभय-अंतर एक नारि सोही |

मनहु बारिद-बिधु बीच ललित अति,
राजति तड़ित निज सहज बिछोही ||

उर धीरजहि धरि, जनम सफल करि,
सुनहि सुमुखि! जनि बिकल होही |

को जानै, कौने सुकृत लह्यो है लोचन-लाहु,
तारितें बारहि बार कहति तोही ||

सखिहि सुसिख दई, प्रेम-मगन भई,
सुरति बिसरि गई आपनी ओही |

तुलसी रही है ठाढ़ी पाहन गढ़ी-सी काढ़ी,
कौन जानै, कहाँतें आई, कौनकी को ही ||