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सत्यबीज / जयप्रकाश मानस

जला सकती नहीं अग्नि

डुबा सकता नहीं जल

उड़ा सकता नहीं मरूत्

छुपा सकता नहीं आकाश

समवेत चेष्टा से भी

भई किसे ?

सत्यबीज को


सत्यबीज

बगरता ही जाता है

पूरे गमक के साथ

उस के

नहीं होते कान

नहीं होती नाक

नहीं होती आँख

नहीं होती जीभ

उन सबके बावजूद

एक ही समय पर

सून सकता है हर आवाज़

सूँघ सकता है हर गंध

देख सकता है हर प्रघटना

चख सकता है हर रस

सत्यबीज होता है संपूर्ण


वह सिर्फ़ नहीं होता

राम-ईसा-पैंगबर या जरास्थू

सत्यबीज अंकुरित होता है

हमारी भी बस्तियों में

पाते हैं जिससे

गर्माहट- जैसे सूरज

होते हैं प्रकाशित – जैसे चंद्रमा

बुझाते हैं प्यास - जैसे नदी का तट


चलो आज ही

पूरे मन से

अकाल के बाद पहली बारिश में

किसान की भाँति

अपने-अपने दिल में रोप दें

सत्यबीज