अपनी पीठ पर दुःखों के
पहाड़ लादे पिता
चले जाते हैं गंगा जल लाने
और गुम हो जाते हैं बीच राह ही
बनचरों के गांव से गुजरते हुए
दिन-रात बैठकर तब तक
अम्मा सेती रहती शालिग्राम की मूर्तियां
और रह-रह रो पड़ती फफक-फफककर!
मैं पोंछता रहता अपना पसीना
आंगन में छितराये तुलसी चौरा की
झींनी छांव में बैठकर
आवेदन-पत्रा पर फोटो चिपकाता हुआ
काश! ऐसा हो पाता
पिता लौट आते खुशहाल
मां की आंखों में पसर जाती
पकवान की सोंधी गंध
मेरी अंखुवाती उम्मीदों को मिल जाते
अंधेरे में भी टिमटिमाते तारे।