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अंग दर्पण / भाग 5 / रसलीन

चितवन-वर्णन

गहि दृग मीन प्रवीन को चितवनि बंसी चारु।
भवसागर में करति है नागर नरनु सिकारु॥46॥

औचक ही मों तन चितै दीठि खीच जब लीन।
विधन निसारन बान लों दोऊ बिधि दुख दीन॥47॥

कटाक्ष-वर्णन

बान बेधि सब बधे को खोज करति है धाय।
अद्भुत बान कटाक्ष जिहिं बिच्यो लगे संग जाय॥48॥

तिरछी चितवन ते चखन, चितवन किनों दोय।
लागत तिरछी तेग जब कटत बेग नहिं होय॥49॥

कपोल-वर्णन

मुकुर विमलता, चन्द दुति, कंज मृदुलता पाय।
जनम लेइ जो मंजु ते लहे कपोल सुभाय॥50॥

आयो समता बोल कहि लहि कपोल सुकुमार।
मुकुट परयोता ते परयो मुकुर बदन में छार॥51॥

स्वेदकण-वर्णन

अमल कपोलन स्वेद कन, दृगन लगत इहि रूप।
मानो कंचन कंबु में मोती जड़े अनूप॥52॥

तिल-वर्णन

जाल घुँघट अरु दंड भुव नैनन मुलह बनाय।
खैचति खग जग दृग तिया तिल दीनों दिखराय॥53॥

सब जगु पेरत तिलन को को न थके इहि हेरि।
तुव कपोल के एक तिल डार्यो सब जग पेरि॥54॥

अलक-वर्णन

बांध्यों अलकन प्रान तुव, बांधन कचन बनाय।
छोटन को अपराध यह, पर्यो बड़न पहँ जाय॥55॥

बिबि कपोल की लटक तिय, अद्भुत गति यह कीन।
ऐंचा खैंची डारि कै, दोऊ बिधि जीय लीन॥56॥