अपना सिर थामे खड़ी
सांसारिक कुचक्रों के प्रति उदासीन !
अपना सिर थामे खड़ी
देर से हुई सुबह में।
आह, चोटी पर ला फेंका
उस प्रचण्ड लहर ने।
गाती हूँ मैं तुम्हें
क्योंकि तुम हो अद्वितीय हमारे लिए
जैसे अद्वितीय है चन्द्रमा आकाश में।
कव्वे की तरह दिन में उड़ान पूरी कर
छिप गई है जो अब बादलों की ओट में
मैं गाती हूँ ऎसी तुझ कुबड़ी को
जिसका प्राणान्तक है क्रोध,
प्राणान्तक है प्यार।
जिसने मेरे क्रेमलिन के ऊपर
फैला दी है अपनी काली रात,
और फन्दे की तरह गाते हुए आनन्द में
कसता जा रहा है मेरा गला।
हाँ, मैं ख़ुशनसीब हूँ कि कभी नहीं चमकी
सुबह इतनी साफ़ जितनी आज,
ख़ुशनसीब हूँ कि तुझे सब-कुछ दे कर
दूर जा रही हूँ आज
वैभवहीन !
ओ फ़ाख़्ता, ओ अंधकार,
तेरी आवाज़ ने मुश्किल कर दिया है साँस लेना।
इसीलिए तुझे पुकारा है मैंने
त्सारसकए-सेला की कला-देवी के नाम से।
त्सारसकए-सेला= इस जगह पर रूस के ज़ार का दाचा (समर हाऊस) था। इसलिए इसे 'ज़ार का गाँव'(त्सारसकए सेला) पुकारा जाता है।
रचनाकाल : 22 जून 1916
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह