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अतृप्ति / जगदीश गुप्त

तन ने सम्पर्कों की सारी सीमाओं को पार किया,
पर न हुआ तृप्त हिया।
फूलों सी बाँहों में,
पलकों की छाँहों में,
सपने की तरह जिया,
पर न हुआ तृप्त हिया।
साँपों सी लहरातीं,
मन की काली छायाएँ देखीं।
तप्त वासनाओं की,
भूखी नंगी कायाएँ देखीं।
अधरों में, आँखों में,
आकर्षण आकर्षण,
आसिंचन मधुवर्षण,
सब कुछ रसहीन लगा,
कुछ था प्राणों में जो नहीं जगा,
जितनी ही प्यास बढ़ी, उतना रस और पिया,
पर न हुआ तृप्त हिया।

लगता जैसे सब कुछ केवल है तृषा,
तृप्ति जिसमें कण मात्र नहीं।
केवल गति, केवल गति —
रुकना क्षण मात्र नहीं।