(कवि स्व. चिरंजीव दास को स्मरण करते हुए)
खलिहान में बगरे धान की तरह
अंतिम छोर तक
साथ देने वाले गमकते शब्द
गुनगुना रहे हैं भीतर-ही-भीतर
बस्ती में फैल रही है
भाषा की मीठी आग
छेरछेरा के लिए पर्रा-टुकनी धरे
बच्चे के चेहरे पर
उतर आया है उत्सव
गउड़िया-कीर्तन डंडा-नाच की धुन में
कभी भी झूम उठेगी
बड़ी-टमाटर पकाती कन्याएँ
बूढ़े जो अबसज्जन बन चुके हैं
बाँच रहे – कार्तिक पुराण
सूरज जल-बुझ रहाहै उनकी छानी में
वहा मुस्तैद है उनके साथ हो लेने के लिए
केलो नदी उनके पिछवाड़े के आसपास
है अब भी
प्रतीक्षा में ग़ज़मार पहाड़ उनसे
कुछ सुनने्
मगर कांदागढ़ के मीट्टी का
अनन्त बीज वाला पेड़
अब कहीं नहीं दिखता
धूप भरी गलियों में