अनुपम मोरें मन अभिलास।
नव निकुंज सुख-सज्या बिरची, कान्ह-मिलन की आस॥
मंगल कलस धरे नव पल्लव, रोपे रंभा-खंभ।
निभृत निकुंज करत नित जगमग रतन-दीप-सुस्तंभ॥
बिबिध भोग, बिंजन सुहृद्य, फल मधुर, सुधा-संभार।
सुरभित सलिल धर्यौ भरि झारी, बिबिध भाँति उपहार॥
मृगमद-चंदन-गंध, सुलेपन, विकसित चंपा-ड्डूल।
संपुट भरि राखे अति रुचिकर सुचि कपूर-तंबूल॥
तुलसि-मंजरी-सहित सुमन सुंदर सुगंध बर हार।
मन में ललित लालसा लसि रहि, करन मधुर मनुहार॥
एक-एक पल बीतत जुग-सम, चिा परत नहिं चैन।
धधकत मन बिरहानल भीषन, छिन-छिन बाढ़त मैन॥