Last modified on 26 मई 2022, at 15:37

अन्धेरे की लौ / देवेन्द्र कुमार

फिर फूटी पौ
दूर कहीं जल उठी
अन्धेरे की लौ

घर मण्डप द्वार सजे
हवा चली पत्तों के
बेशुमार झाँझ बजे
गीत ग़ज़ल शहनाई
कूक उठी तनहाई
फूट पड़ा कण्ठों से ओ नहीं औ

ताल, क़दम कुआँ उठा
चौके में सेन्ध पड़ी
छप्पर से धुआँ उठा

बाग़ों का ठाठ-बाट
दिन का ऊँचा ललाट
गिनती के सुबह-शाम
गिनती के सौ

चउरे पर बेदी पर
खोल खूँट का अक्षत्‍
भाखने लगा खण्डहर
दाएँ अरती-परती
बाएँ हुई धरती
पाँच फूल लवँग
और एक दीया जौ !