अपनी हथेलियों में
अपने अस्तित्व के
चावल लिए,
चोंच मारती
चिड़ियों को चुगाता है;
दूसरों के लिए
जीने का
नाटक रचाता है।
संस्कार-बद्ध आदमी,
बस,
यहीं तक जाता है;
सम्पत्ति के
जठर सम्बंध
नहीं तोड़ पाता है,
सुख-भोग
नहीं छोड़
पाता है।
रचनाकाल: २४-०८-१९७८