अमरण लय-स्वर क्यों मरण-रंध्र में फूका?
पथ की अथ-इति भी नहीं बताई तुमने,
न अथक गति ही दी मुझको बिदाई तुमने;
तारे हारे, उस पथ पर मुझे चलाते!
ग्रहपति मेरे, मैं तो जुगनू हूँ भू का!
आते-आते, बंदन-बेला टल जाती,
मंजिल-मंजिल मेरी गति पर पछताती;
मुझको विलोक नभ-कोक कलपने लगता!
लहता सुहाग लुट जाता साँझ-बधू का!
तुमको पाने मैं प्यासा दौड़ा जाता,
भ्रम के श्रम में संचित भी अमृत गँवाता;
करुणा अपनी देखो, मृगतृष्णा मेरी!
तुम चिर-निदाघ, मैं थिर पावस आँसू का!