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आंधियां : दो / इंदुशेखर तत्पुरुष

सतह के धूल-कण
ऊपर उछालती
चली आती हैं आंधियां
हवा में किरकिरी भरती
करती उजले शिखरों को पांसुल
दरख्तों की चमकदार
हरी पत्तियों को करती घूसर
मगर कब तक ?
ये, जो धुल जाएंगे
बारिश के
एक ही छपाके में।