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आज़ाद / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

आप चुहिया पकडऩे के लिए
पिंजरा लाई हैं
उसे कैद करेंगी

दरवाज़ा खुला छोड़ दीजिए
जैसे आई थी वैसे चली भी जाएगी
उसे पिंजरे में कैद मत करिए, माँ!
बेटी कहती है

क्या बढ़ती उम्र के साथ
मन सिकुड़ जाता है इंसान का

आपको तोता सुन्दर लगा
पकड़ लाईं
इसे आज़ाद करो
उड़ाओ
और आसमान में उड़ते हुए तोतों के झुण्ड को देखो
कितने सुन्दर लगते हैं

वो आज़ादी का सौन्दर्य
वो विस्तृत आसमान कितना अनूठा है
माँ, इसी आज़ादी से होकर निकलता है
हर आज़ादी का रास्ता
हमारी आज़ादी का भी

यह गिलहरी
इसे घर में खेलने दो आपका क्या बिगड़ जाएगा
मस्ती करने दो
हम भी तो उनके बगीचों में टहलते हैं
खेलते हैं
यह हमें कुछ नहीं कहती
हम क्यों इसे कुछ कहें, माँ!