आत्महत्या / शरद कोकास

अदृश्य जख़्मों से रिसता रक्त
जब देखा नहीं जाता हो
असहनीय हो जाती हो
दर्द की कोई लहर
आघात खटखटाते हों
दिमाग के दरवाजे़
खूब रोने का मन करता हो
और नहीं फूटती हो रुलाई
भीतर घुट जाती हो
कोई बेआवाज़ चीख

तमाम भीड़ के बीच
जाने पहचाने भी गै़र लगते हों
यह ख़्याल न सताता हो
दुनिया का क्या होगा हमारे बाद
अपनी जिं़दगी का कोई
मक़सद नज़र न आता हो
वहीं सबकी जिं़दगी लगती हो बेमानी

अंततः मनुष्य के भीतर
जन्म लेने लगता है
सब कुछ दान कर देने का भाव
वह दान के लिए पात्र ढूँढ़ता है
और स्वयं से बेहतर
उसे कोई नहीं मिलता

आत्महत्या दरअसल
अपने आप पर की गई दया है
जो अक्सर
ऐसे माहौल में उपजती है।

-1998

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