आदर्शों पर अगरबत्तियाँ
आओ जला चलें
बैठ फिर कहीं स्वयं पजलें !
जितनी सरधा
उतनी चुप्पी
इतना बहरापन
ऊँची मान माथ से देहरी
गहरा रही चुभन,
कंगूरों पर
स्वर्ण थोपकर
अपने पुण्य फलें !
मन की मर्ज़ी
हर ख़ुदगर्ज़ी
अन्धा अपनापन
सूरज से भी सदा रही है
आँखों की अनबन,
अंगारों को
फेंक फूस पर
आओ हाथ मलें !
26 दिसम्बर 1974