सूख गई सदियों की
भरी हुई झीलें
भूमिगत गिनते हैं
खपरीली कीलें
दीमकों को खा रहा
भूखा कबूतर
छेदता आकाश
पालतू तीतर
पर कटे कैसे उड़ें
पली हुई चीलें
कौन देखे बार-बार
बिके हुए जिराफ़
गोंद से चिपका नहीं
छिदा हुआ लिहाफ़
खिन्नियों की सोचकर
नीम छीलें
आवरण छोटा पड़ेगा
एक तरफ़ा ढाँकने में
छिपकली सफल है
दृष्टियों को आँकने में
बढ़ न पाएँ पोर सीमित
उँगलियाँ सी लें