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उदासी से भरा आलम / सिया सचदेव

वही हैरान सी ख़ामोशियाँ है
वही चारों तरफ मायूसियाँ है
लगे सिमटा हुआ हर एक लम्हा
हाँ तन्हा जिस्म और ये जान तन्हा
बहुत बेरंग सा मौसम लगे है
उदासी से भरा आलम लगे है
 मेरे दिल की चुभन जाती नहीं है
कोई भी शय मुझे भाती नहीं है
वो उठ कर रात को चुपचाप रोना
फिर एहसासों को लफ़्ज़ों में पिरोना
गिनूँ घड़ियाँ कटेगी रात ये कब
सह्ऱ की आस में बैठी हूँ मैं अब
न जाने कब वो आएगा सवेरा
कि ये जीना, मुकम्मल होगा मेरा