उद्धव ! राधा-सी अभागिनी, दुःखभागिनी, पापिनि कौन ?
जिसको छोड़, मधुपुरी जाकर माधव मधुर हो गये मौन !
ऐसी प्रिय-वियोगिनी तरुणी मेरे सिवा न कोई और।
प्रिय-बिछोहमें शून्य दीखते जिसको सभी काल, सब ठौर॥
पल-पलमें बढ़ता जाता है दारुण-से-दारुण उर-दाह।
सूखे कण्ठ-तालु सब जिसके, निकल न पाती मुखसे आह॥
प्रियतमके वियोगकी ज्वालामें कैसा भीषण उााप।
कर न सकेगा उसका कोई, कभी कल्पनासे भी माप॥
मेरे मनकी विषम वेदना रहती मनमें ही अव्यक्त।
भाषा नहीं पहुँच पाती है, शद नहीं कर पाते व्यक्त॥
कैसे किसे सुनान्नँ, उद्धव ! मैं अपने मनकी यह बात।
कौन बोध देकर कर सकता शीतल मेरे जलते गात॥
दुखी न होओ देख मुझे तुम, जाओ, उद्धव ! हरिके पास।
झुलसा दें न कहीं ये मेरे तुहें घोर संतापी श्वास॥